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श्रीनगर. एक देश में केवल एक ही प्रधानमंत्री हो सकता है। लेकिन एक समय था जब हमारे भारत देश में दो प्रधानमंत्री होते थे। एक प्रधानमंत्री देश का होता था और दूसरा जम्मू-कश्मीर राज्य का होता था। जम्मू और कश्मीर के इतिहास में, ‘प्रधानमंत्री’ और ‘सदर-ए-रियासत’ जैसे पदों का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। आज के समय में, जब जम्मू और कश्मीर का मुख्यमंत्री पद हमें सामान्य दिखता है, तो यह जानना दिलचस्प हो जाता कि इस पद का नाम पहले ‘प्रधानमंत्री’ हुआ करता था।

1947 में जब भारत को स्वतंत्रता मिली, तब जम्मू और कश्मीर एक स्वतंत्र रियासत थी और वहां महाराजा हरि सिंह का शासन था। भारत के साथ जम्मू और कश्मीर का विलय होने के बाद, एक विशेष व्यवस्था के तहत राज्य को कुछ विशेषाधिकार दिए गए। ‘सदर-ए-रियासत’ राज्य का प्रमुख हुआ करता था, जो वर्तमान के राज्यपाल के समान था। वहीं ‘प्रधानमंत्री’ राज्य की सरकार का मुखिया हुआ करता था, जो आज के मुख्यमंत्री के पद के समकक्ष था।

1964 में, केंद्र सरकार ने इन पदों के नाम और अधिकारों में बदलाव करने का निर्णय लिया। इस परिवर्तन का उद्देश्य जम्मू और कश्मीर के संविधान और भारतीय संविधान के बीच समन्वय बनाना था। केंद्र में उस समय जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। इस बदलाव के तहत ‘प्रधानमंत्री’ का पद ‘मुख्यमंत्री’ और ‘सदर-ए-रियासत’ का पद ‘राज्यपाल’ में बदल दिया गया।

इस परिवर्तन का एक बड़ा कारण यह था कि जम्मू और कश्मीर को भारत के अन्य राज्यों के समकक्ष लाया जा सके और वहां की राजनीति को मुख्यधारा में शामिल किया जा सके। 1965 में यह बदलाव औपचारिक रूप से लागू हुआ। इस परिवर्तन में केंद्र सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका रही। जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने इस बदलाव के माध्यम से जम्मू और कश्मीर को भारतीय संघ में पूरी तरह से एकीकृत करने का प्रयास किया।

जम्मू और कश्मीर के इतिहास में 1965 का साल एक महत्वपूर्ण मोड़ लेकर आया। इस वर्ष जम्मू और कश्मीर के संविधान में छठे संशोधन अधिनियम को पारित किया गया, जिसके तहत राज्य में ‘प्रधानमंत्री’ और ‘सदर-ए-रियासत’ जैसे पदों को बदलकर ‘मुख्यमंत्री’ और ‘राज्यपाल’ किया गया। जम्मू और कश्मीर के संविधान में इस बड़े संशोधन की शुरुआत 1965 में हुई। यह संशोधन अधिनियम जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा द्वारा पारित किया गया था। इस संशोधन का मुख्य उद्देश्य राज्य के प्रशासनिक ढांचे को भारतीय संविधान के अनुरूप बनाना था। 1952 में दिल्ली समझौते के बाद से ही इस बात की चर्चा थी कि राज्य के पदनाम और संरचना में बदलाव होना चाहिए।

डोगरा शासक महाराजा हरि सिंह द्वारा नियुक्त जम्मू-कश्मीर के पहले प्रधानमंत्री सर एल्बियन बनर्जी (1927-29) थे। स्वतंत्रता से पहले राज्य में नौ और प्रधानमंत्री हुए। स्वतंत्रता के बाद पहले प्रधानमंत्री मेहर चंद महाजन (अक्टूबर 1947-मार्च 1948) थे। उनकी जगह शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को नियुक्त किया गया। यानी जम्मू कश्मीर का भारत में विलय होने के बाद पहले प्रधानमंत्री शेख मोहम्मद अब्दुल्ला थे, जिन्होंने 1948 से 1953 तक इस पद पर कार्य किया। शेख अब्दुल्ला राज्य की राजनीति में एक प्रमुख नेता थे और ‘शेर-ए-कश्मीर’ के नाम से जाने जाते थे।

उनके बाद, बख्शी गुलाम मोहम्मद ने 1953 से 1964 तक प्रधानमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला। वे शेख अब्दुल्ला के करीबी सहयोगी थे, लेकिन 1953 में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के बाद उन्होंने प्रधानमंत्री पद का कार्यभार संभाला। अगले दो जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री ख्वाजा शम्सुद्दीन (1963-64) और कांग्रेस नेता गुलाम मोहम्मद सादिक (30 मार्च 1965 तक) थे। 1964 में, गुलाम मोहम्मद सादिक ने प्रधानमंत्री पद संभाला। यह वही समय था जब राज्य के प्रशासनिक ढांचे में बदलाव की प्रक्रिया चल रही थी। गुलाम मोहम्मद सादिक ही वह प्रधानमंत्री थे, जिनके कार्यकाल के दौरान 1965 में छठे संविधान संशोधन अधिनियम को पारित किया गया।

1965 में जब संविधान संशोधन अधिनियम के तहत प्रधानमंत्री का पद समाप्त किया गया और मुख्यमंत्री का पद सृजित हुआ, तो गुलाम मोहम्मद सादिक जम्मू और कश्मीर के पहले मुख्यमंत्री बने। इस प्रकार सादिक जम्मू-कश्मीर के आखिरी प्रधानमंत्री और पहले मुख्यमंत्री बने और दिसंबर 1971 तक सेवा करते रहे। उन्होंने राज्य में इस पद को संभालते हुए प्रशासनिक कार्यों को आगे बढ़ाया और जम्मू और कश्मीर को भारतीय संघ में पूरी तरह से शामिल करने की दिशा में कदम उठाए।

जम्मू-कश्मीर संविधान सभा का गठन सितंबर 1951 में हुआ था और 25 जनवरी 1957 को इसका विघटन हो गया था। जम्मू-कश्मीर संविधान को 17 नवंबर 1956 को अपनाया गया था, लेकिन यह 26 जनवरी 1957 को ही लागू हुआ। 10 जून 1952 को, जम्मू-कश्मीर संविधान सभा द्वारा नियुक्त “मूल सिद्धांत समिति” ने सिफारिश करते हुए कहा कि “वंशानुगत शासन की संस्था को समाप्त कर दिया जाएगा” और “राज्य के प्रमुख का पद निर्वाचित होगा”। दो दिन बाद, संविधान सभा ने सर्वसम्मति से रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया। संविधान सभा ने संकल्प लिया कि राज्य के प्रमुख, जिसका नाम सदर-ए-रियासत होगा, उसको विधान सभा द्वारा पांच साल की अवधि के लिए चुना जाएगा और भारत के राष्ट्रपति द्वारा मान्यता दी जाएगी। जम्मू-कश्मीर का कोई स्थायी निवासी ही सदर-ए-रियासत बन सकता था। विधान सभा द्वारा चुने जाने के बाद, सदर-ए-रियासत को भारत के राष्ट्रपति द्वारा मान्यता दी जानी थी और फिर नियुक्त किया जाना था।

जम्मू-कश्मीर संविधान सभा की सिफारिश पर राष्ट्रपति ने 17 नवंबर, 1952 को अनुच्छेद 370 के तहत संविधान आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि राज्य सरकार का मतलब है निर्वाचित सदर-ए-रियासत, जो मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर काम करता है। जम्मू-कश्मीर नेतृत्व ने जो एक समझौता किया, वह था महाराजा हरि सिंह के बेटे और 1949 से रीजेंट, कर्ण सिंह को पहला सदर-ए-रियासत चुनना। कर्ण सिंह एकमात्र सदर-ए-रियासत थे, जो 17 नवंबर 1952 से तब तक कार्यरत रहे, जब तक कि 30 मार्च 1965 को यह पद समाप्त नहीं कर दिया गया और इसके स्थान पर केंद्र द्वारा मनोनीत राज्यपाल को नियुक्त नहीं कर दिया गया। यहां तक कि कर्ण सिंह पहले राज्यपाल भी बने।

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