बसवराजू के बाद माओवादी संगठन में सत्ता संघर्ष! महासचिव पद के लिए देवजी और सोनू मुख्य दावेदार

देश के सबसे घने और अनसुलझे जंगलों में से एक अबूझमाड़ से माओवाद के खात्मे की शुरुआत हो चुकी है. नक्सलियों के सामने अब नेतृत्व का संकट गहराता जा रहा है. वहीं बसवराजू के मारे जाने के बाद उसकी जगह कौन लेगा, इसके लिए अंदरूनी कलह भी चर्चा तेज हो गई है. 21 मई को हुए नक्सल मुठभेड़ में कंपनी नंबर-7 का सफाया हो गया, जिसमें माओवादियों का थिंकटैंक और संगठन का सबसे बड़ा नेता महासचिव बसवराजू भी मारा गया.नक्सल विरोधी इस अभियान में कुल 28 नक्सली मारे गए, लेकिन माओवाद आंदोलन की सबसे बड़ी क्षति महासचिव के मौत से हुई. अब संगठन में नया महासचिव तय करने को लेकर गहमागहमी तेज हो गई है. सूत्रों की मानें तो नक्सल आंदोलन को 21 मई को तब सबसे बड़ी चोट लगी, जब अबूझमाड़ के घने जंगलों में सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में माओवादी महासचिव नंबाला केशव राव उर्फ बसवराजू मारा गया.यह वही बसवराजू था, जिसे दशकों से नक्सलियों की रणनीति, सैन्य कार्रवाई और आंतरिक अनुशासन का मुख्य सूत्रधार माना जाता था, लेकिन उसकी मौत ने संगठन को सिर्फ एक नेता से ही नहीं, बल्कि दिशा और अभियान से भी वंचित कर दिया है. अब संगठन के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है कि बसवराजू की जगह कौन लेगा?महासचिव की कुर्सी पर मंथनबस्तर में लंबे समय से रह रहे और नक्सल अभियान को पास से कवर करने वाले पत्रकारों की मानें तो संगठन के भीतर फिलहाल दो प्रमुख नामों की चर्चा है, जिसमें देवजी (चिप्पीरी तिरुपति) और सोनू उर्फ अभय (मल्लोजुला वेणुगोपाल) है. दोनों तेलंगाना के रहने वाले हैं और वर्षों से संगठन के सैन्य और रणनीतिक कार्यों में अहम भूमिका में रहे हैं, लेकिन जानकारों का मानना है कि संगठन में उपजे मतभेद और गुटबाजी के बीच किसी एक नाम पर आम सहमति बनाना मुश्किल फैसला होगा.रमन्ना की मौत के बाद शुरू हुई कलह अब चरम परबस्तर में इन दिनों एक तरफ नक्सलवाद के खात्मे को लेकर चलाए जा रहे ऑपरेशन की चर्चा है तो वहीं दूसरी तरफ माओवादियों के अगला लीडर कौन होगा, इसकी चर्चा हो रही है. जानकारों की मानें तो संगठन की अंदरूनी कलह पहली बार कोरोना काल के दौरान खुलकर सामने आई थी. जब डीकेएसजेडसी सचिव रमन्ना की मौत हुई. उस समय सावित्री (किशनजी की पत्नी), गुडसा उसेंडी और गणेश उइके जैसे दिग्गजों की दावेदारी के चलते नेतृत्व को लेकर महीनों असमंजस बना रहा. वही संकट एक बार फिर माओवादियों के लिए परेशानी खड़ा कर रहा है.क्या फिर लौटेगा गणपति?सूत्रों की मानें तो पूर्व महासचिव गणपति (मुपल्ला लक्ष्मण राव) जिसने 2018 में स्वास्थ्य कारणों से पद छोड़ा था, अब एक बार फिर संभावित विकल्प के रूप में देखा जा रहा है. सूत्रों का यह भी कहना है कि वह हाल ही में विदेश से इलाज कराकर लौटा है. अगर केंद्रीय समिति की बैठक में सहमति नहीं बनती है तो उसे कार्यकारी महासचिव की जिम्मेदारी दी जा सकती है.पोलित ब्यूरो और केंद्रीय समिति का ढांचा भी चरमरायाभाजपा सरकार के माओवाद खात्मे को लेकर तय किया गया समय, उनके लिए काल साबित हो रहा है. नक्सल विरोधी ऑपरेशन में जिस तरह से जवानों को सफलताएं मिल रही हैं, उससे माना जा रहा है कि नक्सल संगठन का ढांचा तेजी से कमजोर हो रहा है. नक्सलवादियों की स्ट्रेटजी और संगठन के बारे में करीब से जानने वालों की मानें तो 12 सदस्यीय पोलित ब्यूरो अब केवल 4 सदस्यों तक सिमट गया है, जबकि 24 सदस्यीय केंद्रीय कमेटी में केवल 11 सदस्य बचे हैं. बसवराजू की मौत ने संगठन की कमर ही नहीं तोड़ी, बल्कि उसकी रणनीतिक क्षमता को भी गहरे संकट में डाल दिया है.नक्सली पर्चा- ‘अपनों की गद्दारी से मारा गया बसवराजू’अब तक की सबसे बड़ी सफलता माने जाने वाले इस नक्सल विरोधी अभियान से माओवाद को गहरी चोट पड़ी है. घटना के छह दिन बाद नक्सलियों ने पर्चा जारी कर बताया कि बसवराजू की मौत किसी ऑपरेशन का नतीजा नहीं, बल्कि अंदरूनी गद्दारी का परिणाम था. दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी के प्रवक्ता विकल्प ने पर्चे में छह लोगों को दोषी ठहराया है, जिनके इनपुट पर ऑपरेशन को अंजाम दिया गया.अब आगे क्या?बसवराजू के मारे जाने के बाद बौखलाए संगठन में आगे क्या होगा सवाल यही है. क्या नक्सल आंदोलन अपने सबसे बड़े संकट से उबर पाएगा? क्या संगठन एकमत होकर किसी नए नेता को चुन पाएगा? या फिर अंतर्कलह और टूटते ढांचे के बीच यह आंदोलन अपने पतन की ओर और तेजी से बढ़ेगा? एक बात साफ है कि बसवराजू की मौत सिर्फ एक व्यक्ति का अंत नहीं, बल्कि माओवाद के एक युग का अवसान है.