नेपाल में कैसे खत्म हुआ राजा का शासन, किसने किया शाही परिवार का नरसंहार? हैरान करने वाला इतिहास

काठमांडु. हिमालय की गोद में बसा नेपाल एक ऐसा देश है जिसकी पहचान कभी राजाओं और उनकी शाही परंपराओं से थी। लेकिन आज ये देश एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में अपनी राह तलाश रहा है। हालांकि यह सफर आसान नहीं रहा। 240 साल पुरानी राजशाही का अंत, शाही परिवार का नरसंहार और इसके बाद लोकतंत्र की राह में आई चुनौतियों को देखते हुए लगता है कि नेपाल का इतिहास किसी क्राइम थ्रिलर से कम नहीं है। आज, जब नेपाल में फिर से राजशाही की वापसी की मांग उठ रही है, तो ऐसे में यह समझना जरूरी है कि आखिर वहां राजा का शासन कैसे खत्म हुआ, शाही परिवार का नरसंहार किसने किया और भारत ने इसमें क्या भूमिका निभाई।
नेपाल का इतिहास शाह वंश से गहराई से जुड़ा है। 1768 में गोरखा के राजा पृथ्वी नारायण शाह ने छोटे-छोटे रजवाड़ों को एकजुट कर आधुनिक नेपाल की नींव रखी। इतिहास बताता है कि गोरखा साम्राज्य के अंतिम राजा और नेपाल साम्राज्य के पहले राजा पृथ्वी नारायण शाह ने 1769 में काठमांडू, पाटन और भदगांव के तीन मल्ल राज्यों पर विजय प्राप्त कर नेपाल का एकीकरण किया। शाह वंश का दावा था कि वे प्राचीन भारत के राजपूतों के वंशज हैं। अगले ढाई सौ साल तक यह वंश नेपाल पर राज करता रहा। इस दौरान नेपाल ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से खुद को बचाए रखा, हालांकि 1814-16 के एंग्लो-नेपाल युद्ध में उसे अपनी कुछ जमीनें गंवानी पड़ीं, जो आज भारत के उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश का हिस्सा हैं।
19वीं सदी में राणा वंश का उदय हुआ, जिसने शाह राजाओं को नाममात्र का शासक बना दिया और असली सत्ता अपने हाथों में ले ली। राणाओं ने ब्रिटिश हुकूमत के साथ दोस्ताना रिश्ते रखे, लेकिन 1951 में जनआंदोलन के बाद राजा त्रिभुवन ने राणा शासन को उखाड़ फेंका और शाह वंश की सत्ता फिर से बहाल हुई। यह वह दौर था जब नेपाल में लोकतंत्र की नींव पड़ रही थी, लेकिन राजशाही अभी भी मजबूत थी। 1959 में नेपाल में पहली बार संसदीय चुनाव हुए, लेकिन 1960 में तत्कालीन राजा महेंद्र ने लोकतांत्रिक सरकार को भंग कर दिया और ‘पंचायती’ शासन व्यवस्था लागू की। 1990 में नेपाल में जनआंदोलन हुआ, जिससे बहुदलीय लोकतंत्र बहाल हुआ, लेकिन राजशाही बरकरार रही।
नेपाल के इतिहास में 1 जून 2001 का दिन काले अक्षरों में दर्ज है। उस रात काठमांडू के नारायणहिती पैलेस में साप्ताहिक शाही भोज चल रहा था। तभी अचानक सैनिक वर्दी पहनकर हाथों में बंदूकें लिए क्राउन प्रिंस दीपेंद्र शाह आए और अपने ही परिवार पर गोलियां बरसा दीं। इस नरसंहार में राजा बीरेंद्र वीर बिक्रम शाह, रानी ऐश्वर्या, उनके बेटे निरंजन, बेटी श्रुति और परिवार के अन्य सात सदस्य मारे गए। दीपेंद्र ने बाद में खुद को भी गोली मार ली और तीन दिन बाद उनकी मौत हो गई।
आधिकारिक जांच के मुताबिक, यह नरसंहार पारिवारिक विवाद का नतीजा था। दीपेंद्र को ग्वालियर के शाही परिवार की देवयानी राणा से प्यार हो गया था, लेकिन रानी ऐश्वर्या ने इस रिश्ते को सिरे से खारिज कर दिया। कारण था ग्वालियर और ऐश्वर्या के परिवार के बीच पुरानी दुश्मनी। दीपेंद्र की शादी सुप्रिया शाह से कराने की तैयारी थी, जिसे वे बर्दाश्त नहीं कर सके। नशे की हालत में दीपेंद्र ने उस रात अपने परिवार को खत्म कर दिया। हालांकि, कुछ लोग इसे साजिश मानते हैं और भारत की खुफिया एजेंसी रॉ (RAW) तक का नाम इसमें जोड़ते हैं, लेकिन इसके कोई ठोस सबूत नहीं मिले।
शाही नरसंहार ने नेपाल को हिलाकर रख दिया। राजा बीरेंद्र की मौत के बाद उनके भाई ज्ञानेंद्र शाह को ताज सौंपा गया, लेकिन उनकी लोकप्रियता कभी बीरेंद्र जैसी नहीं रही। उस समय नेपाल माओवादी विद्रोह के दौर से गुजर रहा था। 1996 से शुरू हुआ यह आंदोलन राजशाही के खिलाफ था और देश में गरीबी, बेरोजगारी और असमानता के मुद्दों को उठा रहा था। इस माओवादी आंदोलन (1996-2006) का नेतृत्व प्रचंड (पुष्पकमल दहाल) कर रहे थे। वे नेपाल से राजशाही को समाप्त कर एक लोकतांत्रिक गणराज्य स्थापित करना चाहते थे। जनता में राजशाही के प्रति असंतोष बढ़ता जा रहा था।
2005 में ज्ञानेंद्र ने तख्तापलट कर सारी सत्ता अपने हाथों में ले ली, लेकिन यह कदम उल्टा पड़ गया। 2006 में जनआंदोलन-II के जरिए जनता सड़कों पर उतर आई। माओवादियों और राजनीतिक दलों के दबाव में ज्ञानेंद्र को झुकना पड़ा। 28 मई 2008 को संविधान सभा ने 560-4 के बहुमत से राजशाही को खत्म कर नेपाल को संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित कर दिया। ज्ञानेंद्र को नारायणहिटी पैलेस छोड़ना पड़ा और वे निजी नागरिक बन गए।
महत्वपूर्ण घटनाएं:
- 2005 में राजा ज्ञानेंद्र ने निर्वाचित सरकार को भंग कर खुद सत्ता संभाल ली, जिससे जनता में भारी आक्रोश फैल गया।
- 2006 में व्यापक जनआंदोलन हुआ, जिसे लोकतंत्र समर्थक जनक्रांति (जनआंदोलन-द्वितीय) कहा जाता है।
- 24 अप्रैल 2006 को राजा ज्ञानेंद्र को सत्ता छोड़नी पड़ी और लोकतंत्र बहाल हुआ।
- 2007 में नेपाल को संवैधानिक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया।
- 28 मई 2008 को नेपाल की संविधान सभा ने औपचारिक रूप से राजशाही समाप्त कर दी और नेपाल एक संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया।
भारत की ऐतिहासिक मदद
नेपाल और भारत का रिश्ता सिर्फ भौगोलिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक भी है। नेपाल की राजशाही के दौरान भारत ने कई बार उसकी मदद की। 1951 में जब राजा त्रिभुवन राणा शासन के खिलाफ दिल्ली में शरण लिए थे, तब भारत ने उन्हें समर्थन दिया और राणा शासन को खत्म करने में मदद की। 2008 में राजशाही के खात्मे में भी भारत की भूमिका अहम मानी जाती है। माना जाता है कि भारत की खुफिया एजेंसी रॉ ने माओवादी नेता पुष्पकमल दहाल ‘प्रचंड’ के साथ मिलकर नेपाल को लोकतांत्रिक बनाने में योगदान दिया, ताकि चीन का बढ़ता प्रभाव रोका जा सके। इसके अलावा, भारत ने नेपाल को आर्थिक सहायता, बुनियादी ढांचे और शिक्षा के क्षेत्र में भी लगातार मदद दी है।
पुष्पकमल दहाल ‘प्रचंड’ की भारत से गद्दारी
प्रचंड ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित होकर की और 1980 के दशक में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (मशाल) के महासचिव बने। 1996 में, उन्होंने नेपाल में माओवादी जनयुद्ध की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य राजशाही को उखाड़ फेंकना और एक गणतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करना था। इस दौरान भारत के साथ उनके संबंधों की प्रकृति अस्पष्ट रही। कुछ रिपोर्ट्स के अनुसार, माओवादी आंदोलन के दौरान प्रचंड और उनके सहयोगियों ने भारत में शरण ली थी, विशेष रूप से दिल्ली और अन्य शहरों में, जहां वे अपनी गतिविधियों को संचालित करते थे। हालांकि, भारत सरकार ने कभी भी माओवादियों को आधिकारिक समर्थन देने की बात स्वीकार नहीं की। इसके विपरीत, भारत ने नेपाल की तत्कालीन राजशाही सरकार को सैन्य सहायता प्रदान की थी ताकि माओवादी विद्रोह को दबाया जा सके।
2006 में नेपाल में माओवादी आंदोलन के समापन और शांति समझौते के बाद प्रचंड मुख्यधारा की राजनीति में शामिल हुए। इस प्रक्रिया में भारत ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत ने नेपाल में लोकतंत्र की बहाली और माओवादियों को राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल करने के लिए मध्यस्थता का समर्थन किया। प्रचंड ने इस दौरान भारत के साथ सहयोग को महत्वपूर्ण माना, क्योंकि नेपाल की अर्थव्यवस्था और सुरक्षा भारत पर बहुत हद तक निर्भर थी। 2008 में, जब प्रचंड पहली बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने, उन्होंने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए चीन को चुना, जो भारत के लिए एक आश्चर्यजनक कदम था, क्योंकि परंपरागत रूप से नेपाली प्रधानमंत्री अपनी पहली यात्रा भारत करते थे। यह कदम भारत-नेपाल संबंधों में तनाव का संकेत था, लेकिन प्रचंड ने जल्द ही भारत के साथ संबंधों को संतुलित करने की कोशिश की।
लेकिन तनाव तब बढ़ और गया जब प्रचंड ने दूसरे मोर्चे खोल दिए। पार्टी के एक दस्तावेज में भारत और उसके ‘दलालों’ को दुश्मन घोषित कर दिया गया; उन्होंने पशुपति नाथ मंदिर में भारतीय पुजारियों की जगह नेपाली पुजारियों को लाने की मांग की। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने नेपाल की सेना को निशाना बनाया और उसके प्रमुख को बर्खास्त कर दिया। भारत ने नेपाल आर्मी को अपने सुरक्षा ढांचे का विस्तार, एक महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में देखा, और उसे चिंता थी कि माओवादी सेना के ‘चरित्र’ को बदलना चाहते थे और एक-पक्षीय शासन स्थापित करने के लिए राज्य की सत्ता पर कब्जा करना चाहते थे। दिल्ली ने प्रचंड के कदम के खिलाफ नेपाल के बाकी राजनीतिक वर्ग को लामबंद कर दिया।
इसका नतीजा ये निकला कि प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। सेना प्रमुख वहीं रहे। भारत ने एक नई गैर-माओवादी सरकार बनाने में मदद की। इसके बाद प्रचंड ने तय किया कि ‘राष्ट्रवाद’ उनका कॉलिंग कार्ड होगा – और उन्होंने घरेलू नेपाली राजनीति में भारतीय भूमिका को अभियान का केंद्रबिंदु बनाने की कोशिश की। सड़क पर आंदोलन खत्म हो गया। दिल्ली ने भी उन्हें विपक्ष में बनाए रखने के लिए हरसंभव कोशिश की। हालांकि प्रचंड खुद प्रधानमंत्री नहीं बन पाए, लेकिन उन्होंने सीपीएन-यूएमएल के एक अन्य नेता झालानाथ खनल को प्रधानमंत्री के रूप में समर्थन देकर माओवादी विरोधी गठबंधन को तोड़ने में कामयाबी हासिल की। इसके बाद ये संबंध हमेशा उतार-चढ़ाव वाले ही रहे।
आज के हालात: राजशाही की वापसी की मांग
2025 में नेपाल फिर से चर्चा में है। मार्च 2025 तक देश में अस्थिरता बढ़ रही है। राजनीतिक दलों पर भ्रष्टाचार के आरोप, आर्थिक संकट और हिंदू सांस्कृतिक पहचान के खत्म होने का डर जनता को परेशान कर रहा है। काठमांडू की सड़कों पर लोग “राजा वापस आओ, देश बचाओ” के नारे लगा रहे हैं। राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी और हिंदू संगठन नेपाल को फिर से हिंदू राष्ट्र बनाने की मांग कर रहे हैं। उनका तर्क है कि 80% से ज्यादा हिंदू आबादी वाले देश को सेक्युलर बनाने की जरूरत नहीं।
ज्ञानेंद्र शाह अब 77 साल के हैं और चुपचाप काठमांडू में रह रहे हैं। उनके पास अभी भी संपत्ति और प्रभाव है, लेकिन वे सत्ता में लौटने की कोई औपचारिक कोशिश नहीं कर रहे। फिर भी, जनता का एक हिस्सा मानता है कि राजशाही के दौर में स्थिरता थी, जो अब गायब है। दूसरी ओर, माओवादी और लोकतांत्रिक नेता इसे लोकतंत्र के खिलाफ साजिश बताते हैं।
कुल मिलाकर शाही नरसंहार से लेकर राजशाही के अंत तक, यह देश कई उतार-चढ़ाव से गुजरा। भारत ने इसमें दोस्त और पड़ोसी की भूमिका निभाई, लेकिन आज नेपाल एक नए मोड़ पर खड़ा है। क्या वह फिर से राजशाही की ओर लौटेगा या लोकतंत्र को मजबूत करेगा? यह सवाल समय ही जवाब देगा।