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भारत-पाकिस्तान के बीच में अमेरिका की भूमिका

भारत-पाकिस्तान के बीच लगातार बढ़ते तनाव और परमाणु हमले की आशंका के बीच अमेरिका खुद शांति स्थापित करने के लिए मैदान में उतर आया। जब पाकिस्तान के महत्वपूर्ण एयरबेस पर हमले हुए और परमाणु संकेत मिलना शुरू हुए, तब वॉशिंगटन को हालात हाथ से निकलते नजर आए। पाकिस्तान पहले तो भारत को चेतावनी दे रहा था, लेकिन भारतीय जवाबी कार्रवाई से घबरा कर उसने संघर्षविराम की गुहार अमेरिका से लगाई। इसी के बाद अमेरिकी नेतृत्व ने सीधे भारत से संपर्क किया और तनाव घटाने की कोशिशें शुरू हुईं। पहले तो अमेरिका के द्वारा कहा जा रहा था कि हमारा कोई हस्तक्षेप नहीं होगा ये दोनो देशों का आपसी मसला है।

दोनों देशों के बीच तनाव में पाकिस्तान की ओर से भारत पर 400 से 500 ड्रोन भेजे गए, लेकिन हालात तब पलटे जब रावलपिंडी स्थित नूर खान एयरबेस पर हमला हुआ। यह इलाका पाकिस्तान की भौगोलिक संरचना या कहें कि भौगोलिक स्थिति का केंद्र माना जाता है और परमाणु हथियारों की देखरेख से भी जुड़ा है। हमले के बाद पाकिस्तान की ओर से परमाणु प्रतिक्रिया की संभावना ने अमेरिका को चिंतित कर दिया और उसने हस्तक्षेप करते हुए हालात को काबू में करने का प्रयास किया।

परमाणु संकेत से चौंका अमेरिका, खुद उतरा बीच में
अमेरिका पहले यह मानकर दूर रह रहा था कि यह भारत-पाक का द्विपक्षीय मामला है। लेकिन जब परमाणु हमले की संभावना दिखने लगी और रावलपिंडी के रणनीतिक ठिकानों पर हमले हुए, तब अमेरिका को हस्तक्षेप करना पड़ा। अमेरिकी उप राष्ट्रपति ने सीधे भारत के प्रधानमंत्री से बात की, हालांकि भारत ने साफ कर दिया कि यदि पाकिस्तान ने कोई दुस्साहस किया तो वह पूरी ताकत से जवाब देगा।

संघर्षविराम की असल पहल पाकिस्तान की थी
पाकिस्तान ने शुरुआत में आक्रामक रुख अपनाया, लेकिन भारत की सख्त सैन्य प्रतिक्रिया और अहम सैन्य ठिकानों पर हमलों के बाद वह बैकफुट पर आ गया। जब उसकी ओर से संघर्षविराम की पेशकश आई, तभी अमेरिका ने मध्यस्थता की भूमिका निभाई। भारत ने हालांकि अमेरिकी भूमिका को सार्वजनिक रूप से कभी स्वीकार नहीं किया, जबकि पाकिस्तान ने खुद को इस पूरी स्थिति में कमजोर स्थिति में पाया।

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